Encyclopedia of Muhammad
जन्म: 546 C.E मृत्यु: 570 C.E. पिता: अब्दुल-मुत्तलिब मां: फातिमा बिन्त अम्र जीवनसाथी: आमिना رضى الله عنها वंशज: हज़रत मुहम्मद ﷺ जनजाति: कुरैश के बनू हाशिम पेशा: व्यापारी

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अब्‍दुल्‍लाह बिन अब्दुल-मुत्तलिब

Arshad Ali Jilani *

अब्‍दुल्‍लाह बिन अब्दुल-मुत्तलिब (عبداللہ بن عبدالمطلب) हज़रत पैगंबर के पिता थे 1, उनके पिता अब्दुल-मुत्तलिब बिन हाशिम कुरैश कबीले की एक शाखा बनू हाशिम के प्रमुख थे। उनकी माता का नाम फ़ातिमा बिन्त अम्र इब्न आइज़ इब्न इमरान बिन मखज़ूम इब्न याक़्ज़ा था, जो मूल रूप से कुरैश की एक शाखा बनू मख़ज़ूम से थीं। 2 3 अब्‍दुल्‍लाह का जन्म 546 CE में हुआ और 34 साल की उम्र में उनके बेटे (हज़रत पैगंबर) के जन्म से कुछ महीने पहले 4 570 CE में उनका निधन हो गया था।, आमतौर पर कहा जाता है कि वह अपने सभी भाई-बहनों में सबसे छोटे थे।, 5 हालाँकि, हमज़ा, अब्बास और सफ़िया, जो हाला से पैदा हुए थे, वे अब्‍दुल्‍लाह से छोटे थे। 6 लेकिन अगर बात फातिमा बिन्त अम्र के बच्चों तक ही सीमित रहे तो उनकी संतान में अब्दुल्लाह सबसे छोटे बेटे थे। 7

“अब्‍दुल्‍लाह” अल्लाह तआला के प्यारे नामों में से एक है 8 जिसका शाब्दिक अर्थ होता है "अल्लाह का बन्दा" 9 अब्‍दुल्‍लाह के पांच सगे भाई-बहन थे, जिनमें जुबैर, अब्दे मनाफ़ (जिन्हे आमतौर पर अबू तालिब के नाम से जाना जाता है), अतीका, बर्रह और उमेमा शामिल थे। 10 हालाँकि, अब्दुल-मुत्तलिब के बेटों में, वह सबसे खूबसूरत, सबसे पवित्र और तेजस्‍वी थे 11 और अपने पिता के सबसे प्रिय थे। 12

बलिदान (कुर्बानी) के लिए अब्दुल्लाह को चुना गया।

इब्न इस्‍हाक के अनुसार, ज़मज़म का कुआँ खोदते समय, अब्‍दुल-मुत्‍तलिब को एहसास हुआ कि उनके काम में मदद करने के लिए उनका केवल एक बेटा (हारिस) है।, 13 इसलिए उन्‍हों ने अल्लाह से प्रार्थना की कि उन्‍हें और बेटे प्रदान करे और उन्‍होंने मन्‍नत की कि यदि मेरे दस बेटे होंगे, तो मैं उनमें से एक को अल्लाह की खातिर काबा में कुर्बान कर दूंगा। 14 उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली गई और सर्वशक्तिमान अल्‍लाह ने उन्हें दस बेटे दिये जो उनकी रक्षा और मदद कर सकते थे। एक दिन, उन्‍होंने उन सभी को इकट्ठा किया और उन्हें अपनी मिन्‍नत के बारे में बताया और उनसे कहा कि वे खुदा पर ईमान रखें । वे सभी उनकी मन्नत पूरी करने के लिए तैयार हो गए और उनसे पूछा कि अब क्या करना है। अब्दुल-मुत्तलिब उन्हें काबा शरीफ के अंदर ले गए और उनमें से हर एक से कहा कि वे एक तीर ले और उस पर अपना नाम लिखे और उसे उनके पास लेकर आए ताकि वह किसी भविष्‍यवक्‍ता धर्मगुरू से परामर्श कर सकें कि किस की बलि दी जाए।. 15

उस समय अरबों में भविष्यवाणी या इल्‍हाम के माध्यम से किसी जटिल और अबूझ समस्या का फैसला करना आम बात थी। वे हरम में रखी सबसे बड़ी मूर्ति के पैरों पर तीर चलाकर अनसुलझे मुद्दों का फैसला करते थे। 16 जैसे वे किसी लड़के का खतना करना चाहते, या किसी महिला से शादी करना चाहते, या किसी शव को दफनाना चाहते, या यदि उन्हें किसी व्यक्ति के माता-पिता पर संदेह होता था, तो वे उस व्यक्ति को हुबल के पास ले जाते, 17 फिर तीरों के संरक्षक के पास जाते थे। ईश्वर द्वारा दी गई इस सलाह के शुल्क के रूप में उनसे सौ दिरहम वसूले जाते थे। 18 इस्लाम के आगमन के बाद पवित्र कुरआन ने इस प्रथा को शैतानी काम घोषित किया और इस पर रोक लगा दी, 19 लेकिन उससे पहले यह एक सामाजिक रूप से स्वीकृत प्रथा थी।

अब्दुल-मुत्तलिब ने तीरों के आधिकारिक संरक्षक को अपनी मिन्‍नत के बारे में बताया और उससे अपने बेटों के तीर चलाने और उनके भाग्य का फैसला करने को कहा। प्रत्येक बेटे ने अपना तीर उस को सौंप दिया जिस पर उसका नाम लिखा था। जब तीरों का संरक्षक अपना काम कर रहा था तो अब्दुल-मुत्तलिब काबा के अंदर उसके बगल में खड़े हो गए और अल्लाह से प्रार्थना करने लगे। तीर ने अब्‍दुल्‍लाह की ओर इशारा किया, तो अब्दुल-मुत्तलिब ने एक बड़ा चाकू लिया और अब्‍दुल्‍लाह का हाथ पकड़ लिया और उन्‍हें बलि चढ़ाने के लिए ऊपर चढ़ गए। 20 हालाँकि अब्‍दुल्‍लाह को पता था कि उनकी बलि दी जाने वाली है, फिर भी उन्‍होंने कोई झिझक नहीं दिखाई। 21 यह उनके पिता के प्रति उनकी आज्ञाकारिता और अल्लाह की राह में अपना जीवन बलिदान करने की इच्छा को दर्शाता है।

जब कुरैश के लोगों ने देखा कि अब्दुल-मुत्तलिब अब्‍दुल्‍लाह की बलि देने वाले हैं, तो वे अब्दुल- मुत्तलिब के पास गए और उनसे अनुरोध किया कि वे अपने बेटे को कुर्बान न करें और इसके बजाय कोई अन्य समाधान खोजें। अब्‍दुल्‍लाह के ननिहाल की ओर से मुगीरा बिन अब्‍दुल्‍लाह अल-मखज़ूमी ने ज़ोर देकर कहा कि अब्‍दुल्‍लाह को रिहा किया जाए और किसी प्रकार की माफी मांगी ली जाएा कुरैश कबीले के अन्य लोग और अब्दुल-मुत्तलिब के घर वाले जोर देते रहे यहां तक कि अब्दुल-मुत्तलिब ने उनसे पूछा कि अपने बेटे की बलि देने के बजाय ईश्‍वर को खुश करने के लिए क्या किया जाना चाहिए, मुगीरा इब्न अब्‍दुल्‍लाह अल-मखज़ूमी ने उसे अपने बेटे को धन से फिरौती देने की सलाह दी। उसने स्वयं अब्‍दुल्‍लाह के लिए सबसे बड़ी फिरौती देने की पेशकश की और घोषणा की कि वह फिरौती की रकम के रूप में अब्‍दुल्‍लाह को बचाने के लिए अपने पूरे कबीले के साथ सभी आवश्यक धन का त्याग कर देगा 22

कुरैश कबीले के लोगों ने सुझाव दिया कि अब्दुल-मुत्तलिब अब्‍दुल्‍लाह को यस्रिब में एक बुद्धिमान जादूगरनी के पास ले जाएं, जिसका किसी परिचित आत्‍मा के साथ संपर्क था, ताकि वह उसे बेहतर सलाह दे सके। वह इस बात पर भी सहमत थे कि यदि यह आध्यात्मिक महिला उन्हें अब्‍दुल्‍लाह की बलि देने की सलाह देती है, तो फिर वे अब्दुल-मुत्तलिब को ऐसा करने से नहीं रोकेंगे। यदि वह कुछ और सुझाव देती है, तो यह सभी के लिए राहत की बात होगी। अब्दुल-मुत्तलिब ने उनकी राय मान ली और वह यस्रिब के लिए रवाना हो गये। जब वे उसके स्थान पर पहुँचे तो उन्होंने पाया कि जादूगरनी वहाँ नहीं है बल्कि खैबर चली गई है। 23 जो यस्रिब से लगभग सौ मील उत्तर में एक उत्पादक घाटी में एक समृद्ध यहूदी कस्‍बा था। 24 उन्होंने अपनी यात्रा जारी रखी और खैबर पहुँचे जहाँ अब्दुल-मुत्तलिब ने उस महिला से मुलाकात की और उसे मामले की पूरी जानकारी दी। उसने उन सभी को आदेश दिया कि वे चले जाएं और उस समय तक इन्‍तेजार करें जबतक कि वह परिचित आत्‍मा उसके पास न आ जाए ताकि वह उससे पूछ सके और उस मामले में उन्‍हें कुछ व्यावहारिक सुझाव दे सके। अब्दुल-मुत्तलिब ने उस रात का अधिकांश समय अल्लाह की इबादत में बिताया। अगले दिन, वे फिर उससे मिलने गए और महिला ने उनसे पूछा कि वह मुआवज़ा के रूप में कितना भुगतान करने को तैयार हैं? उन्‍होंने कहा कि दस ऊँट हैं। उसने उन्हें मक्का लौटने की सलाह दी और उनसे कहा कि वे दस ऊंटों और अब्‍दुल्‍लाह के नाम पर चिट्ठी (Cleromancy) 25डालें। यदि चिट्ठी अब्‍दुल्‍लाह के नाम निकलती है तो वे उसमें और ऊँट जोड़ते जाएं जब तक कि चिट्ठी ऊँटों के नाम नहीं निकल जाए। एक बार जब चिट्ठी ऊँटों के नाम निकल जाए, तो उसके बदले एकत्रित ऊँटों की कुल संख्या की बलि देनी होगी। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यही एकमात्र तरीका है जिससे खुदा प्रसन्न होगा और अब्‍दुल्‍लाह की जान बचायी जा सकेगी। 26

अब्दुल-मुत्तलिब मक्का वापस लौट आए और उन निर्देशों का पालन करने का फैसला किया। उनके बेटों ने चिट्ठी डालने की प्रक्रिया शुरू कर दी, जबकि अब्दुल-मुत्तलिब ने अल्लाह से प्रार्थना की। फिर वह अब्‍दुल्‍लाह के पास चिट्ठी निकालने के लिए दस ऊँट लाए और तीर अब्‍दुल्‍लाह के नाम गिरा। अत: उन्होंने दस ऊँट और जोड़ दिये, परन्तु चिट्ठी फिर अब्‍दुल्‍लाह के नाम निकली, और वे हर बार दस ऊँट और जोड़ते गए, यहाँ तक कि सौ ऊँट हो गए। आख़िरकार चिट्ठी ऊँटों के नाम निकल गई। 27 कुरैश के लोग और श्रोता-गण अब्दुल-मुत्तलिब को बताए कि अब उनके साथ भगवान प्रसन्न हो गए हैं। लेकिन उन्होंने उत्तर दिया, जब तक मैं तीन बार चिट्ठी नहीं डालता, तब तक नहीं। तीन बार किया गया और प्रति बार तीर ऊँटों के खिलाफ गिरा। 28 अब्दुल- मुत्तलिब ने सफ़ा और मारवह के बीच ऊँटों का वध किया और लोगों के लिए दावत की व्यवस्था की, लेकिन न तो उन्होंने और न ही उनके बेटों ने उसमें से कुछ खाया। उस दिन तक दियत (मुआवज़ा/फिरौती) की कीमत दस ऊँट थी, लेकिन अब्दुल-मुत्तलिब ने एक मानव जीवन के बदले में इसे बढ़ाकर सौ ऊँट तक पहुंचा दिया। क़ुरैश के लोगों के साथ-साथ अन्य सभी अरबों ने भी इसे स्वीकार कर लिया और इस्लाम के बाद, हज़रत पैगंबर ने भी इसकी पुष्टि की। 29

हज़रत पैगंबर को इब्नुज्‍ज़बीहैन (दो वध करने वालों का पुत्र) कहा जाता है। इस उपाधि का कारण यह है कि उनके पिता अब्‍दुल्‍लाह और उनके परदादा हज़रत इस्माइल को कुर्बानी के लिए पेश किया गया था। लेकिन अल्लाह तआला ने हज़रत इस्माइल और अब्‍दुल्‍लाह दोनों को बचा लिया। 30

अब्‍दुल्‍लाह के लिए विवाह प्रस्ताव

अब्‍दुल्‍लाह एक आकर्षक युवक थे, जिन्‍हें मक्का की महिलाएँ बहुत पसंद करती थीं। वे उनके बदले सैकड़ों ऊँटों की बलि देने की उस घटना से वह बहुत प्रभावित हुई थीं और उनसें विवाह करना चाहती थीं। 31 रिवायत है कि अब्दुल्लाह का माथा इतना चमकदार था कि ऐसा लगता था मानो उससे प्रकाश की किरणें निकल रही हो। यह इस बात का संकेत था कि उनकी पीढ़ी में कोई नबी है। यह भी एक कारण था कि कई महिलाएं उनसे शादी करना चाहती थीं और कुछ ने उनके पास प्रस्‍ताव भी भेजा था। उनमें से एक बनू असद कबीले के उम्मे किताल बिन्त नौफल थीं। कहा जाता है कि उन्‍होंने अपने भाई वरका बिन नौफल से, जो ईसाई धर्म और प्राचीन धर्मग्रंथों के विद्वान थे, अरब में पैगंबर के प्रकट होने के संकेतों के बारे में सुना था, इसलिए वह चाहती थीं कि पैगंबर का जन्‍म उनके यहां हो। 32

रिवायत है कि कुर्बानी और फिरौती की घटना के बाद अब्‍दुल्‍लाह अपने पिता अब्दुल-मुत्तलिब के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में उनकी मुलाकात उम्मे किताल से हुई, 33 उसने अब्‍दुल्‍लाह से बात की और उनसे शादी करने के लिए कहा, और जितने ऊँटों की उनके बदले बलि दी गई थी, उतने ही ऊँटों की उन्‍हें पेशकश की। अब्‍दुल्‍लाह ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया और कहा कि वह अपने पिता द्वारा सुझाई गई लड़की से ही शादी करेगें। 34 यह घटना अब्‍दुल्‍लाह की अपने पिता के प्रति आज्ञाकारिता और सम्मान के साथ-साथ सांसारिक इच्छाओं से उनकी अरूची को भी दर्शाती है। ऐसा ही एक जिक्र फातिमा बिन्त मूर्र के बारे में भी किया जाता है, जो अरब की सबसे खूबसूरत महिला थीं, उन्होंने भी अब्‍दुल्‍लाह को शादी की पेशकश की लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। इससे उनकी धर्मनिष्ठा, कुलीनता, गरिमा और पवित्रता का पता चलता है। 35 ऐसा कहा जाता है कि जब उनकी शादी हुई, तो बनू मखज़ूम, बनू अब्दे-शम्स और बनू अब्दे -मनाफ कबीलों की कई युवतियां इस खबर का बोझ सहन नहीं कर सकीं और कई दिनों तक बीमार रहीं। 36

आमिना से विवाह

यमन की एक घटना के बाद अब्दुल-मुत्तलिब अपने और अपने बेटे के लिए बनू ज़हरा कबीले से दुल्हन लाना चाहते थे। उनके इस दृढ़ संकल्प और इरादे का कारण अब्बास बिन अब्दुल-मुत्तलिब ने बताया है कि वह एक बार अपने पिता के साथ यमन में थे, जहां उनकी मुलाकात एक यहूदी विद्वान से हुई, जो धर्मग्रंथों का ज्ञाता था। उसने अब्दुल-मुत्तलिब की शक्ल-सूरत में कुछ निशानियाँ देखीं और पुष्टि की कि अब्दुल-मुत्तलिब के एक हाथ में सत्ता और सरकार है और दूसरे हाथ में पैग़म्बरी है, लेकिन ये दोनों गुण बनू ज़हरा कीबले में एकत्रित हो जाएंगे। फिर उसने पूछा कि क्या अब्दुल-मुत्तलिब ने बनू ज़हरा कबीले के साथ कोई संबंध स्थापित किया है या नहीं? अब्दुल-मुत्तलिब ने इनकार कर दिया, क्योंकि तब तक उनका उस कबीले से कोई संबंध नहीं था। अब्बास का कहना है कि उनके पिता ने इस बातचीत और भविष्यवाणी को ध्यान में रखा और अपनी और अब्‍दुल्‍लाह की बनू जहरा कबीले की एक महिला से शादी करने का फैसला किया। 37 यही घटना अब्दुल्लाह की बनू ज़हरा कबीले में शादी का कारण साबित हुई।

जब अब्‍दुल्‍लाह चौबीस साल के थे, 38 तब अब्दुल-मुत्तलिब ने अपने बेटे की शादी के लिए ज़हरा कबीले के प्रमुख वहब बिन अब्दे मनाफ बिन ज़हरा की बेटी आमिना को चुना। इसलिए उन्होंने अपने बेटे अब्‍दुल्‍लाह की शादी के लिए आमिना का हाथ मांगा। वह वंश और पद की दृष्टि से सबसे उत्कृष्ट महिला 39 थीं और 40 उस समय अपने कबीले की महिलाओं की प्रमुख थीं। 41 इस प्रकार, माता और पिता दोनों की ओर से, हज़रत मुहम्मद अपनी वंशावली में सर्वोच्च और सबसे सम्माननीय थे। 42

इस विवाह प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया और अब्‍दुल्‍लाह की आमिना से शादी हो गई, जबकि उनके पिता अब्दुल-मुत्तलिब ने उसी दिन आमिना की चचेरी बहन से शादी कर ली। अब्दुल-मुत्तलिब की इस शादी के कारण, हज़रत पैगंबर के एक चाचा उनके ही उम्र के थे, जिनका नाम हमज़ा था। कबीले की रीति-रिवाजों के अनुसार, शादी के पहले तीन दिन अब्‍दुल्‍लाह अपने रिश्तेदारों के बीच आमिना के साथ रहे। 43 फिर वे अब्दुल-मुत्तलिब के घर चले गए।

कुछ इतिहासकारों ने अब्‍दुल्‍लाह की आमिना के अलावा अन्य महिलाओं से शादी के बारे में कई कहानियाँ लिखी हैं, लेकिन वे केवल कहानियाँ हैं जो सच नहीं हैं। 44 अल-वाकीदी का हवाला देते हुए, इमाम अल-सलेही कहते हैं कि अब्‍दुल्‍लाह ने आमिना के अलावा किसी भी महिला से कभी शादी नहीं की। 45

अब्‍दुल्‍लाह का निधन

अब्‍दुल्‍लाह कुरैश कबीले के एक व्यापारिक कारवां के साथ सीरिया में गाज़ा के लिए रवाना हुए। जब वह निकले तो उस समय आमिना गर्भवती थी। वह कई महीनों तक गाज़ा में रहे और मक्का वापस लौटते समय अपने मामा बनू आदि बिन नज्जार के साथ यस्रिब (मदीना) में रुके। वहाँ रहने के दौरान वह बीमार पड़ गए और मक्का वापस नहीं लौट सके। जब कारवां मक्का पहुंचा, तो उनके पिता को अब्‍दुल्‍लाह की अनुपस्थिति और बीमारी की जानकारी दी गई। अब्दुल-मुत्तलिब ने तुरंत अपने बड़े बेटे हारिस को यस्रिब (मदीना) भेजा, ताकि वह अब्‍दुल्‍लाह की मक्का वापसी की यात्रा में मदद कर सके। जब हरिस यस्रिब पहुंचे तो उन्हें पता चला कि अब्‍दुल्‍लाह का निधन हो गया है और उन्हें यस्रिब में दफना दिया गया है। इसलिए हरिस मक्का लौट आए और अपने बुजुर्ग पिता और विधवा पत्नी आमिना को अब्‍दुल्‍लाह के निधन के बारे में सूचित किया। यह खबर अब्‍दुल्‍लाह के भाइयों और बहनों, अब्दुल-मुत्तलिब और सबसे महत्वपूर्ण अब्‍दुल्‍लाह की पत्‍नि आमिना के लिए एक बड़े सदमे का झटका थी। 46 47

इब्ने साद ने वकीदी के हवाले से कहा कि उनकी उम्र के बारे में सबसे प्रामाणिक राय यह है कि जब उनका निधन हुआ तो वह केवल 25 वर्ष के थे। जब अब्‍दुल्‍लाह इस दुनिया से गए, तो हज़रत पैगंबर उस समय अपनी मां के पेट में थे । 48

अब्‍दुल्‍लाह की विरासत

अब्‍दुल्‍लाह ने अपने परिवार के लिए विरासत में पाँच ऊँट, बकरियों का एक झुंड और एक दासी छोड़ी जिसे उम्मे अयमन कहा जाता है। 49 इतनी संपत्ति से ऐसा नहीं लगता कि अब्‍दुल्‍लाह बहुत अमीर और धनी व्यक्ति थे, लेकिन ऐसा भी नहीं लगता कि वह कोई गरीब, और ज़रूरतमंद आदमी थे। अब्‍दुल्‍लाह अपने शुरुआती बीसवें वर्ष में थे, अभी भी एक युवा और प्रतिभाशाली व्यक्ति थे, जो काम करने और अपना भाग्य बनाने में सक्षम थे। इसके अलावा, उनके पिता अभी भी जीवित थे और उनकी कोई भी संपत्ति अभी तक उनके बच्चों को हस्तांतरित नहीं की गई थी। 50

 


  • 1 Abd Al-Malik ibn Hisham (1955), Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Hisham, Shirkah Maktabah wa Matba’ Mustafa Al-Babi, Cairo, Egypt, Vol. 1, Pg. 158.
  • 2 Muhammad ibn Jareer Al-Tabari (1387 A.H.), Tareekh Al-Tabari, Dar Al-Turath, Beirut, Lebanon, Vol. 2, Pg. 239.
  • 3 Abd Al-Malik ibn Hisham (1955), Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Hisham, Shirkah Maktabah wa Matba’ Mustafa Al-Babi, Cairo, Egypt, Vol. 1, Pg. 109.
  • 4 Muhammad ibn Saad Al-Basri (1968), Tabqat Al-Kubra, Dar Sadir, Beirut, Lebanon, Vol. 1, Pg. 99.
  • 5 Muhammad ibn Isḥaq ibn Yasar Al-Madani(1978), Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Ishaq, Dar Al-Fikr, Beirut, Lebanon, Pg. 33.
  • 6 Abd Al-Rahman ibn Abdullah Al-Suhayli (1421 A.H.), Al-Raud Al-Unuf fe-Sharah Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Hisham, Dar Ihya Al-Turath Al-Arabi, Beirut, Lebanon, Vol. 2, Pg. 84.
  • 7 Muhammad ibn Jareer Al-Tabari (1387 A.H.), Tareekh Al-Tabari, Dar Al-Turath, Beirut, Lebanon, Vol. 2, Pg. 239.
  • 8 Abu Dawud Sulaiman ibn Al-Ash’ath (2009), Sunan Abi Dawud, Hadith: 4950, Dar Al-Salam, Riyadh, Saudi Arabia, Pg. 977.
  • 9 Shaikh Muzaffereddin (2012), Standard Dictionary of Muslim Names with 99 Names of Allah, Al-Minar Books, Claymont, Delaware, USA, Pg. 29.
  • 10 Muhammad ibn Jareer Al-Tabari (1387 A.H.), Tareekh Al-Tabari, Dar Al-Turath, Beirut, Lebanon, Vol. 2, Pg. 239.
  • 11 Safi Al-Rahman Al-Mubarakpuri (2010), Al-Raheeq Al-Makhtum, Dar ibn Hazam, Beirut, Lebanon, Pg. 67.
  • 12 Muhammad ibn Ishaq ibn Yasar Al-Madani (1978), Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Ishaq, Dar Al-Fikr, Beirut, Lebanon, Pg. 33.
  • 13 Muhammad ibn Saad Al-Basri (1968), Tabqat Al-Kubra, Dar Sadir, Beirut, Lebanon, Vol. 1, Pg. 88.
  • 14 Martin Lings (1985), Muhammad ﷺ: His Life based on the Earliest Sources, Sohail Academy, Lahore, Pakistan, Pg. 12.
  • 15 Muhammad ibn Ishaq ibn Yasar Al-Madani (1978), Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Ishaq, Dar Al-Fikr, Beirut, Lebanon, Pg. 32.
  • 16 Husein Haykal (1976), The Life of Muhammad (Translated by Ismail Razi Al-Faruqi), Islamic Book Trust, Petaling Jaya, Malaysia, Pg. 39.
  • 17 पूर्व-इस्लामी अरबिया में कुरैश लोगों द्वारा पूजा जाने वाला देवता।. (Karen Armstrong (2002), Islam: A Shorty History, The Modern Library, New York, Pg. 11.)
  • 18 Muhammad ibn Ishaq ibn Yasar Al-Madani (1978), Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Ishaq, Dar Al-Fikr, Beirut, Lebanon, Pg. 33.
  • 19 Holy Quran, Al-Maida (The Table spread) 5: 90
  • 20 Muhammad ibn Jareer Al-Tabari (1387 A.H.), Tareekh Al-Tabari, Dar Al-Turath, Beirut, Lebanon, Vol. 2, Pg. 241.
  • 21 Husein Haykal (1976), The Life of Muhammad ﷺ (Translated by Ismail Razi Al-Faruqi), Islamic Book Trust, Petaling Jaya, Malaysia, Pg. 39.
  • 22 Abd Al-Malik ibn Hisham (1955), Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Hisham, Shirkah Maktabah wa Matba’ Mustafa Al-Babi, Egypt, Vol. 1, Pg. 153-154.
  • 23 Muhammad ibn Ishaq ibn Yasar Al-Madani (1978), Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Ishaq, Dar Al-Fikr, Beirut, Lebanon, Pg. 36.
  • 24 Martin Lings (1985), Muhammad ﷺ; His Life based on the Earliest Sources, Sohail Academy, Lahore, Pakistan, Pg. 13.
  • 25 Divination by means of casting lots. (Meriam Webster (Online): https://www.merriam-webster.com/dictionary/cleromancy: Retrieved: 25-05-2021) (भाग्य पत्रक प्राक्ख्यापन)
  • 26 Muhammad ibn Ishaq ibn Yasar Al-Madani (1978), Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Ishaq, Dar Al-Fikr, Beirut, Lebanon, Pg. 36.
  • 27 Muhammad ibn Saad Al-Basri (1968), Tabqat Al-Kubra, Dar Sadir, Beirut, Lebanon, Vol. 1, Pg. 88.
  • 28 Muhammad ibn Ishaq ibn Yasar Al-Madani (1978), Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Ishaq, Dar Al-Fikr, Beirut, Lebanon, Pg. 39.
  • 29 Muhammad ibn Saad Al-Basri (1968), Tabqat Al-Kubra, Dar Sadir, Beirut, Lebanon, Vol. 1, Pg. 89.
  • 30 Muhammad ibn Abd Al-Baqi ibn Yusuf Al-Zurqani (1996), Sharah Zurqani Ala Al-Mawahib Al-Laduniyyah bil Minh Al-Muhammadiyah, Dar Al-Kutub Al-Ilmiyah, Beirut, Lebanon, Vol. 1, Pg. 181.
  • 31 Husein Haykal (1976), The Life of Muhammad (Translated by Ismail Razi Al-Faruqi), Islamic Book Trust, Petaling Jaya, Malaysia, Pg. 44.
  • 32 Jalal Al-Din Al-Suyuti (2008), Al-Khasais Al-Kubra, Dar Al-Kutub Al-Ilmiyah, Beirut, Lebanon, Vol. 1, Pg. 71.
  • 33 Abul Fida Ismael ibn Kathir Al-Damishqi (1976), Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Kathir, Dar Al-Ma’rifa lil Taba’a wal-Nashr wal-Tawzi, Beirut, Lebanon, Vol. 1, Pg. 176.
  • 34 Muhammad ibn Ishaq ibn Yasar Al-Madani (1978), Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Ishaq, Dar Al-Fikr, Beirut, Lebanon, Vol. 1, Pg. 42.
  • 35 Ali ibn Ibrahim ibn Ahmed Al-Halabi (2013), Al-Seerah Al-Halabiyah, Dar Al-Kutub Al-Ilmiyah, Beirut, Lebanon, Vol. 1, Pg. 59.
  • 36 Ali ibn Ibrahim ibn Ahmed Al-Halabi (2013), Al-Seerah Al-Halabiyah, Dar Al-Kutub Al-Ilmiyah, Beirut, Lebanon, Vol. 1, Pg. 58.
  • 37 Abd Al-Rahman ibn Abdullah Al-Suhayli (1421 A.H.), Al-Raud Al-Unuf fe-Sharah Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Hisham, Dar Ihya Al-Turath Al-Arabi, Beirut, Lebanon, Vol. 2, Pg. 89.
  • 38 Husein Haykal (1976), The Life of Muhammad (Translated by Ismail Razi Al-Faruqi), Islamic Book Trust, Petaling Jaya, Malaysia, Pg. 46.
  • 39 Muhammad ibn Isḥaq ibn Yasar Al-Madani (1978), Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Ishaq, Dar Al-Fikr, Beirut, Lebanon, Pg. 42.
  • 40 Abd Al-Malik Ibn Hisham (1955), Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Hisham, Shirkah Maktabah wa Matba’ Mustafa Al-Babi, Egypt, Vol. 1, Pg. 156.
  • 41 Ibid.
  • 42 Muhammad ibn Ishaq ibn Yasar Al-Madani (1978), Al-Seerat Al-Nabawiyah le-ibn Ishaq, Dar Al-Fikr, Beirut, Lebanon, Pg. 42.
  • 43 Muhammad ibn Saad Al-Basri (1968), Tabqat Al-Kubra, Dar Sadir, Beirut, Lebanon, Vol. 1, Pg. 95.
  • 44 Husein Haykal (1976), The Life of Muhammad (Translated by Ismail Razi Al-Faruqi), Islamic Book Trust, Petaling Jaya, Malaysia, Pg. 46.
  • 45 Muhammad ibn Yusuf Al-Salihi Al-Shami (1993), Subul Al-Huda wal-Rashad fe Seerat Khair Al-Abad, Dar Al-Kutub Al-Ilmiyah, Beirut, Lebanon, Vol. 1, Pg. 331.
  • 46 Muhammad ibn Saad Al-Basri (1968), Tabqat Al-Kubra, Dar Sadir, Beirut, Lebanon, Vol. 1, Pg. 99.
  • 47 Muhammad ibn Yusuf Al-Salihi Al-Shami (1993), Subul Al-Huda wal-Rashad fe Seerat Khair Al-Abad, Dar Al-Kutub Al-Ilmiyah, Beirut, Lebanon, Vol. 1, Pg. 331.
  • 48 Muhammad ibn Saad Al-Basri (1968), Tabqat Al-Kubra, Dar Sadir, Beirut, Lebanon, Vol. 1, Pg. 99.
  • 49 Husein Haykal (1976), The Life of Muhammad (Translated by Ismail Razi Al-Faruqi), Islamic Book Trust, Petaling Jaya, Malaysia, Pg. 47.
  • 50 Ibid.

  • * This article has been translated from English to Hindi by Mr. Arshad Ali Jilani.